देवदास 1936 – भारतीय सिनेमा में फिल्म विश्लेषण एवं स्त्री प्रतिनिधित्व

Film Analysis and Women’s Representation in early 1930s in  Indian Cinema :
देवदास (1936) की फिल्म का यह विश्लेषण 1930 के शुरुआती भारतीय सिनेमा में महिलाओं की छवि, उनके प्रतिनिधित्व और लैंगिक भूमिकाओं को समझने का प्रयास है।   

डायरेक्टर – प्रमथेश बरुआ
नॉवेल – शरत चंद्र चट्टोपाध्याय
पारो – जमुना बरुआ
देवदास – के एल सैगल
चंद्रमुखी – राजकुमारी
मनोरमा – सितारा
धर्मदास – निमो

1930 के दशक में भारतीय ड्रामा और रोमांस पर आधारित एक चर्चित फिल्म आयी जिसका नाम था  ”देवदास”। ‘प्रमथेश बरुआ‘ द्वारा निर्देशित ये फिल्म ‘शरत चंद्र चट्टोपाध्याय‘ के उपन्यास पर आधारित थी। इस फिल्म के मुख्य कलाकार की भूमिका में थे – ‘के. एल. सैगल‘ जिन्होंने देवदास का रोल किया , ‘जमुना बरुआ‘ ने पार्वती यानी पारो की भूमिका अदा की , चुन्नीलाल की भूमिका में नज़र आये ‘ए. एच. शोर‘ और चंद्रमुखी के रोल में नज़र आयी ‘राजकुमारी‘।

फिल्म प्लॉट 

फिल्म की कहानी शुरू होती है देवदास और पारो की मुलाकात से। फिर देवदास के पिता उसे पढ़ने के लिए कलकत्ता भेज देते है। हालांकि उसका मन तो नहीं था लेकिन फिर कलकत्ता जाकर वो वहीं के रंग – ढंग में ढल जाता है। उधर पारो की माँ , देवदास के परिवार में रिस्ता लेकर जाती है लेकिन देवदास की माँ इंकार कर देती है। उनका मानना था कि छोटे खानदान की लड़की उनकी बहु कैसे बन सकती है।

वहीं रिश्ते की मनाही के कारण पारो के पिता एक हफ्ते में ही एक जमींदार खानदान के शादी – शुदा और उससे अधिक उम्र के एक आदमी से उसका रिस्ता तय कर देते है। उधर पारो ये आस लगाई होती है कि देवदास उससे शादी करेगा। जब आधी रात को वो देवदास के घर शादी की बात पूछने जाती है तो अगले दिन इस बात का सबको पता चलने पर देवदास को बहुत फटकारा जाता है।

फिर वो वापिस कलकत्ता चला जाता है और वही से पारो को चिट्ठी भेजकर ये सन्देश भिजवाता है कि वो उससे विवाह नहीं कर सकता। वहीं कलकत्ता में ही उसे उसका एक पुराना दोस्त मिलता है ‘चुन्नीलाल‘ जो की उसे एक कोठे पर लेकर जाता है। जहाँ उसकी मुलाकात चंद्रमुखी नाम की एक तवायफ़ से होती है। हालांकि देवदास को वो जगह कुछ रास नहीं आती फिर वो पारो के पास वापिस आकर कहता है कि वो उससे शादी करने के लिए तैयार है। लेकिन अब पारो मना कर देती है क्योंकि वो अपने पिता द्वारा तय किये हुए रिश्ते के लिए हां कह चुकी होती है। जिसके चलते बाद में देव, कोठे पर अक्सर जाने लगा और नशे में धुत रहने लाग। इसी बीच उसके पिता का निधन हो जाता है और माँ काशी चली जाती है। देवदास को ऐसे हाल में देखकर धरमदास (देवदास का नौकर ) पारो के पास जाकर उसे सारा हाल बताता है। जिससे पारो बहुत दुखी होकर, देव से बात करने आती है कि वो पीना छोड़ दे लेकिन देव नहीं मानता पर वो ये वादा करता है कि मरने से पहले एक बार वो पारो की चौखट पर जरूर आएगा।

फिर वो वापिस कोठे पर चला जाता है। समय बीतने के साथ देवदास शराब की वजह से बीमार रहने लगता है। बीमारी के दौरान चंद्रमुखी उसकी बहुत सेवा करती है। फिर जब वो थोड़ा ठीक हो जाता है तो पारो को दिया वादा पूरा करने चल पड़ता है। लेकिन सफर के दौरान ट्रेन में ही उसकी तबियत ज्यादा बिगड़ जाती है। जिसके चलते वो बीच रस्ते में ही धरमदास को साथ लिए बिना, उतरकर पारो की घर की तरफ चल पड़ता है लेकिन उसके घर के बाहर पहुंचते ही उसकी मृत्यु हो जाती है। अंत में जब पारो को पता चलता है कि देवदास नाम का एक आदमी बाहर बेसुध पड़ा है तो वो भागे – भागे जाती है पर उसके घर वाले उसे मिलने नहीं देते और घर का मुख्य दरवाज़ा बंद करवा देते है। दोनों के अधूरे मिलन पर इस तरह फिल्म की समाप्ति हो जाती है।

फिल्म में महिलाओं का चित्रण

देवदास और पारो की प्रेम कहानी पर आधारित इस फिल्म में मुख्य रूप से वर्ग और जाति ( क्लास और कास्ट ) को दिखाया गया है। जिसमे बड़े खानदानों का रुतबा , उसूल , और समाज में महिलाओ का स्तर दर्शाया गया है। देवदास और पारो की प्रेम कहानी पर आधारित इस फिल्म में दिखाया है कि पारो, देवदास के परिवार की बहु नहीं बन सकती क्योंकि वो एक छोटे खानदान से ताल्लुक रखती है जिनका समाज में न कोई नाम है और ना ही कोई रुतबा। जबकि देवदास एक जमींदार परिवार से है। बात करे प्रेम विवाह की तो इसे स्वीकारा तो गया है लेकिन प्रेम विवाह के लिए समाज की निगाहो में दोनों परिवारों का स्तर और जाती समान होनी चाहिए। बात करे महिलाओ के किरदारों की तो अब फिल्मो में जरूरत के हिसाब से दर्जनों महिलाओ को लिए जाने लगा था जो समाज में हर तरह की महिलाओ की स्थिति को परदे पर उतारा करती थी। उदाहरण के तौर पर – पारो अपने विवाह की बात देवदास से खुद पूछेगी ये सुनकर उसकी सहेली मनोरमा कहती है ”तुम्हे लाज नहीं आएगी” तब पारो कहती है कि ”तुमसे लाज नहीं आयी।” तब मनोरमा कहती है कि ”मै एक औरत हूँ और तुम्हारी सहेली हूँ। लेकिन वो एक गैर मर्द है।” ये इस ओर संकेत करता है कि एक प्रेमिका अपनी विवाह की बात अपनी सहेलियों से तो कर सकती है पर उस व्यक्ति से नहीं पूछ सकती जिसके साथ उसे अपना जीवन जीना है और विवाह के बाद औरत का स्थान पति के चरणों में है।

शरतचंद्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में कहीं – न – कहीं महिला के किरदार को अधिक साहसी के रूप में लिखा गया है। जब पारो आधी रात को समाज के मानदंडों को तोड़कर विवाह की बात करने देवदास के कमरे में जाती है ये जानते हुए भी की उसे समाज की अवेहलना झेलनी पड़ सकती है फिर भी वो गयी। एक महिला होते हुए उसके लिए ये हिम्मत भरा कार्य था । जबकि मर्द होकर देवदास को अधिक फिक्र होती है कि वो समाज और दुनिया को क्या मुँह दिखायेगा। वहीं दूसरी ओर चंद्रमुखी को भी निम्न वर्ग में दिखाया है जबकि उसके कोठे पर जाने वाले लोग उच्च वर्ग और स्तर के ही है। फिर भी उसे ही समाज से बेइज्जती ,जुर्म और ताने सहने पड़ते है क्योंकि वो एक औरत है फिर भी वो ये सब बर्दास्त करके भी मुस्कराती रहती है और वैश्या (courtesan) होते हुए भी समय आने पर स्वयं को और अपने समुदाय को बिना किसी पर निर्भर हुए संभाल सकने में सक्षम है।

पारो और चंद्रमुखी दोनों ही ‘देवदास’ फिल्म में अहम भूमिका निभाती हुई नज़र आयी है। जहां भौतिकवाद (मटेरियलिस्टिक) संसार में चंद्रमुखी है जिसे देवदास से भक्ति प्रेम यानि डिवोशनल लव का नाता है। है। इसका उदाहरण है – जब देवदास चंद्रमुखी के घर से जाता है तो वो उसके पैर छूकर पूर्ण समर्पण का उदाहरण देती है तो वहीं सांसारिक विवाह (वर्ल्डली मैरिज ) में पारो को चित्रण किया गया है जिसका देवदास से स्पिरिचुअल लव यानि आध्यात्मिक प्रेम का नाता है। दोनों ही मीरा और राधा को दर्शाती है। फिल्म की कहानियों के बदलते सफर में महिलाओं को अभी भी कुछ हद तक सामाजिक सोच में बंधा हुआ दिखाया है। फिल्म के माध्यम से बताया गया है कि उस समय महिलाओ को घर से बाहर निकलने की आज़ादी नही थी ससुराल के अंदर ही उनकी दुनिया होती थी। जैसे इस फिल्म में दिखाया है कि देवदास के अंतिम समय में पारो उससे अंतिम भेंट भी नहीं कर पाती। क्योंकि उसका इस तरह से बाहर जाने से खानदान की बेइज्जती होती इसलिए ससुराल वाले घर का मुख्य द्वार बंद करवा देते है। जो कहीं – न – कहीं इस ओर इशारा करता है कि समाज की परम्पराओं एवं मानदंडों का भार केवल औरत के कंधे पर ही है…

फिल्मी ओपिनियन

बंगाल की सोशियोकल्चरल (समाज-सांस्कृतिक यानि संस्कृति और सामाजिक रीति-रिवाज़) परिवेश पर बनी ये फिल्म रोमांस और अधूरी प्रेम कहानी पर आधारित है। 139 मिनट की इस फिल्म की कहानी 2002 की हिट फिल्म ‘देवदास’ से थोड़ी सी अलग है। इसमें देवदास पढ़ने के लिए कहीं विदेश नहीं बल्कि कलकत्ता जाता है। फिल्म में पहनावे की बात करे तो शहरों का पहनावा गांव से अलग देखने को मिलता है। जहाँ बंगाली परिवेश में धोती कुर्ता देखा गया तो वहीं कलकत्ता में सूट – पैंट देखने को मिला। शहर में सूट- पैंट पहनने को पढ़े – लिखे सभ्य लोगो की पहचान माना गया। इस फिल्म में दर्शाया गया है किस तरह से परिवार , प्रेम से अधिक जरुरी है। जिसके चलते देवदास, परिवार के दबाव में आकर पारो को विवाह के लिए इंकार कर देता है। उस समय लोगो का मानना था कि खानदानी और जमींदार लड़के शिक्षित होने चाहिए। तब शिक्षा सभी के लिए नहीं बल्कि उच्च वर्गीय लोगो के लिए ही अहम् मानी जाती थी।

फिल्म की कहानी में देवदास से अधिक, पारो में अपने प्रेम के प्रति विस्वास और हिम्मत देखने को मिली। जबकि देवदास तब विवश हो गया जब फैसला लेने का समय आया। उच्च शिक्षा एवं पद होने के बावज़ूद भी वो अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र नहीं है। इसका मुख्य कारण है – दुनिया का सामाजिक ढांचा। उच्च जाती के परिवार से ताल्लुक रखने वाले देवदास की ज़िंदगी में सामाजिक रूप से निम्न वर्ग की लड़की नहीं आ सकती थी। इसी कारण से देवदास प्रेम के दुःख को भुलाने के लिए , शराब के नशे में डूब जाता है और आखिर में अपनी जान गँवा बैठता है। इस फिल्म में भौतिकवाद (मटेरियलिस्टिक) संसार में ‘चंद्रमुखी’ को भक्ति प्रेम यानि डिवोशनल लव में दिखाया गया तो वहीं ‘पारो’ को सांसारिक विवाह (वर्ल्डली मैरिज ) के रूप में स्पिरिचुअल लव यानि आध्यात्मिक प्रेम में चित्रण किया गया। असल जीवन में भी अनेक ‘देवदास’ मिल जाते हैं—वे जो समाज के दबाव और तय मानदंडों में उलझकर टूट जाते हैं। वे शायद शराब के नशे का सहारा न लें, लेकिन वे रोजमर्रा की ज़िन्दगी में फँसकर धीरे-धीरे टूटते चले जाते हैं। उनका दर्द सुनसान हो जाता है, और प्यार जिंदा रहते हुए भी मर जाता है।

 

 

 

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