1931 में आयी फिल्म ‘आलम – आरा ‘ के बाद कई और फिल्मे आ चुकी थी। जैसे की 1932 की फिल्म ज़िंदा लाश, 1933 में कर्मा, 1934 में आयी दो फिल्म चंडीदास और अमृत मंथन और 1935 में धूप छांव। लेकिन इस फ़िल्मी सफ़र में हम बात करेंगे 1935 में ही आयी एक और फिल्म ‘धर्मात्मा’ के बारे में ।

टॉकी एरा के दौर में ‘धर्मात्मा’ नाम की ये फिल्म सत्रहवीं शताब्दी के एक मराठी धार्मिक कवि ‘संत एकनाथ’ पर बनाई गयी एक बायोपिक थी। इस फिल्म के डायरेक्टर वी. शांताराम थे और ये फिल्म हिंदी और मराठी दोनों भाषाओ में बनाई गयी । वी. शांताराम
फिल्म प्लॉट
संत एकनाथ के जीवन पर बनी ये फिल्म भगवान की भक्ति से शुरू होती है। संत एकनाथ (बाल गन्धर्व ) जो की ऊँची जाती के है, हमेशा ईश्वर की भक्ति करते है , लोगो को सामाजिक कुरीतियों एवं बुराइयों से बचने का पाठ पढ़ाते है , सभी जाती के लोगो की हमेशा मुफ़्त में मदद करते है लकिन उनकी ये अच्छाई उसी गांव के ‘महंत’ (च्नद्र मोहन) को खटकती है। वो हमेशा उनके विरोध में रहता है क्योंकि गांव के लोग एकनाथ को बहुत मान – सम्मान देते है। उनके द्वारा रचित भक्ति कविताओं को सुनने के लिए हमेशा उनके आस – पास भीड़ लगी रहती है।
तो वहीं महंत, लोगो में भेद – भाव करता है और स्वाभाव से लालची होता है। महंत को एकनाथ के खिलाफ मौका तब मिलता है जब एक बार एकनाथ के वहाँ भोज आयोजित होता है और ब्राह्मणों को खाना खिलाना होता है लेकिन संत, ब्राह्मणों के आने से पहले ही गांव के अछूत जाती को खाना खिला देते है। जब ब्राह्मण वहाँ पहुंचते है तो ये सब देखकर बहुत क्रोधित होकर वहां से लौट जाते है। महंत को विरोध करने का एक मौका मिल जाता है।
उधर एकनाथ का बेटा ‘हरि पंडित’ (के. नारायण काले) अपनी माँ के कहने पर अपने पिता से मिलने जाता है पर इसका कोई फायदा नहीं होता बल्कि गुस्से से निकलते वक्त बाहर उसे गांव की एक अछूत बच्ची मिल जाती है जिसे वो ये एहसास दिलाता है कि वो अछूत है और वो स्वयं ब्राह्मण। इस बात से बच्ची बहुत दुखी हो जाती है और रोते हुए कहती है की वो अछूत है और एकनाथ उससे दूर रहे। पर एकनाथ उसको समझाते है और उसके घर जाकर खाना खाने की बात कहते है। फिर एक दिन वो उस बच्ची के घर जाकर खाना खाते है। बस फिर क्या था ये बात आग की तरह गांव में फ़ैल जाती है और महंत को एक सुनहरा मौका मिल जाता है। वो अपने चमचों के साथ मिलकर एकनाथ को जाती – समाज से बहिष्कृत कर देता है। वहीं एकनाथ का बेटा ‘हरि पंडित’ भी जात – पात को मानने वालो में से होता है वो भी महंत के पक्ष में होता है। जिसके बाद एकनाथ काशी पहुँचते है और वहाँ धार्मिक कविताएं सुनाने के दौरान उनकी मुलाकात प्रदयानंद शास्त्री से होती है। अंत में एकनाथ घर वापिस लौट आते है और साथ ही उनके बेटे को अपनी गलती का एहसास हो जाता है। फिर वो अपने माता – पिता से माफ़ी मांगता है और आखिर में एकनाथ की कविता के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है।
महिलाओं का क़िरदार
सामाजिक अन्याय पर बनी धर्मात्मा फिल्म की कहानी में महिलाओं की छवि थोड़ी बदली हुई नजर आयी है। इसमें फीमेल एक्ट्रेसेस को भी बराबरी के रोल में दिखाया गया है। इसमें अगर पुरुषों को अपनी बात रखने का मौका दिया है तो महिलाओं को भी बोलने का अधिकार दिया गया है। उन्हें भी वहीं सम्मान दिया है जो फिल्म की कहानी में दूसरे कलाकारों को मिला है। उदाहरण के तौर पर हरि पंडित की माँ को ही ले लीजिये। शुरुआत उन्ही से करते है कि कैसे उनका बेटा और पति उन्हें सम्मान देते है। बेटा हरि पंडित अपनी माँ की बात को सुनता है और अहमियत देकर पिता के पास मिलने जाता है और आखिर में गलती का अहसास होने पर माफ़ी भी मांगता है। वहीं दूसरी ओर अछूत जाती की छोटी बच्ची को कुछ लोग घृणा की नज़र से देखते है लेकिन वो बच्ची इस बात से अनजान, कहीं पर भी अपनी बात कहने से कतराती नहीं है। उसे उसके माता – पिता द्वारा इधर -उधर घूमने, बात करने की पूरी आज़ादी दी गयी है। पुरुष अभिनेता के साथ – साथ उस बाल अभिनेत्री को भी एक अहम भूमिका में प्रस्तुत किया गया है। बदलाव की नज़र से देखा जाए तो बजाय किसी लड़के के, एक लड़की को अदाकारी का अवसर मिला और सबसे बड़ी बात उस दौर में उसे फिल्मों में काम करने का मौका दिया गया।
फ़िल्मी अनुभव
संत एकनाथ द्वारा सामाजिक अन्याय , बराबरी , और इंसानियत का पाठ पढ़ाती इस फिल्म ने कहीं न कहीं लोगो की सोच को जगाने का काम किया है। गांव के माहौल में बनाई गयी इस फिल्म की कहानी का आधार छुआछूत जाती को लिया गया है यानि जाति को मुख्य रूप से दर्शाया गया है। उस समय इस तरह की कहानी पर काम करना मेरे विचार से बहुत हिम्मत का काम था जो की वी. शंताराम द्वारा निर्देशित इस फिल्म ने बखूबी निभाया। क्योंकि जात – पात का सिलसिला तो समाज में आज भी मौजूद है और अभी भी इन मुद्दों पर कहानियां लिखी और बोली जाती है । फिर उस समय की फिल्मो में तो लोगो को ये एक नयी सोच देखने को मिल रही थी। एकनाथ जिस तरह से लोगो की मदद करते है और जात – पात उनके लिए कोई मायने नहीं रखता उसी तरह से वो बाकी लोगो को भी इन मूल्यों को अपने जीवन में अपनाने का संदेश देते हैं। इस फिल्म से ये भी मालूम होता है कि अब पौराणिक फिल्मो की जगह सामाजिक मुद्दे ले रहे थे। लेकिन इन फिल्मो से समाज एवं लोगो में कितना बदलाव आया ये कह पाना तो मुश्किल है। पर कह सकते है कि बदलाव की शुरुआत समाज के आईने यानि फिल्मों से दशको पहले से हो चुकी थी।
