बदलती कहानियो का सफर!
हम और आप आज टीवी या सिनेमाघरो में जो भी फिल्मे देखते है इन फिल्मो का आधार, कहानी, क़िरदार, रंग – रूप सब कुछ आज से करीब एक सौ नौ – दस (109 – 110 ) साल पहले कुछ और था । आइये जानते है कैसे शुरू हुआ बॉलीवुड किरदारों और फिल्मो का ये सफ़र ।
साइलेंट एरा का जन्म
दरअसल फ्रेंच के रहने वाले ‘लुमियर ब्रदर्स’ ने सन 1896 में मुंबई के वाट्सन होटल में पहली बार 6 मोशन फिल्मो की स्क्रीनिंग की । जिसके चलते भारत में फिल्मो का जन्म हुआ।
पहली साइलेंट फिल्म
भारत की पहली साइलेंट फिल्म सन 1913 में 'राजा हरिश्चंद्र' के नाम से बनाई गयी। जिसे बनायी थी 'धुंदीराज गोविन्द फाल्के' जी ने, जिन्हे दादा साहब फाल्के के नाम से जाना जाता है और साथ ही ये भी बता दें की भारत का सर्वोच्च अवार्ड 'दादा साहब फाल्के अवार्ड' भी इन्ही के नाम से रखा गया है | राजा हरिश्चंद्र नामक फिल्म 40 मिनट की बनायी गयी और ये ब्लैक एंड वाइट में थी। उस ज़माने में फिल्मे साइलेंट होती थी इसलिए उनका हिंदी और इंग्लिश दोनों में टाइटल दिया जाता था।
प्लॉट
अब बात करते है फिल्म की कहानी के बारे में। दरअसल इस फिल्म में दादा साहब फाल्के ने भारत के महान सत्यवादी राजा , ‘राजा हरिश्चंद्र’ की ईमानदारी और सच्चाई को अपने कैमरे के द्वारा दर्शाया। राजा हरिश्चंद्र अपनी सच्चाई और अपना दिया हुआ वचन पूरा करने के लिए जाने जाते थे।
तो हुआ ये की एक दिन राजा ( दत्तात्रय दामोदर दबके ) शिकार पर गए। तो वहीं अनजाने में उन्होंने ‘ऋषि विश्वामित्र’(गजानन वासुदेव साणे ) के यज्ञ में बाधा डाल दी।
जिसके चलते महर्षि गुस्सा हो गए और राजा को कहा की तुम्हे अपना राज्य दान करना होगा , जिसपर राजा ने अपनी सहमति दी ।
बस फिर क्या था राजा ने महर्षि को अपना सारा राज्य दान कर दिया। यहां तक की पत्नी और बेटा भी त्याग दिए । कुछ वक्त बीतने के बाद महर्षि ने उनकी सच्चाई और ईमानदारी से निभाए गए वचन और कार्यो से प्रभावित होकर कहा कि वो उनकी परीक्षा ले रहे थे और फिर उन्होंने राजा की पत्नी तारामती (अण्णा सालुंके) एवं बेटा रोहिताश्व (भालचंद्र फाल्के) समेत उन्हें उनका सारा राज्य वापिस सौंप दिया।
फिल्मों में महिलाओं का किरदार
उस समय भारत में मोशन फिल्मो ने दस्तक तो दी लेकिन कोई भी महिला किरदार मिलना बहुत मुश्किल का काम था। महिलाएं फिल्म कैमरा के सामने आना नहीं चाहती थी या उन्हें आने नहीं दिया जाता था, क्योंकि फिल्मो में महिलाओ का काम करना समाज में नीचले स्तर का काम माना जाता था जिसकी वजह से पुरुष ही महिलाओ का किरदार अदा करते थे।
कुछ ऐसा ही हमे ' राजा हरिश्चंद्र ' फिल्म में देखने को मिलता है। राजा की पत्नियों समेत कई महिलाओं का किरदार पुरुषों ने ही उनकी वेश-भूषाओ में निभाए है। एक्टर्स के अभावो के चलते सिर्फ एक जगह , दादा साहब फाल्के ने अपनी बेटी को श्री कृष्ण के बाल रूप में पर्दे पर दिखाया है।
उस समय का समाज और हालात ही ऐसे हुआ करते थे की महिलाएं घर के कामो और अपने परिवार तक ही सीमित रहती थी।
फ़िल्मी ओपिनियन
फिल्म में वही दर्शाया गया है जो उस समय लोग देखना पसंद करते थे या जिस तरह का सामाजिक दौर तब चल रहा था। तब फिल्मे हिन्दू पौराणिक एवं साहित्यिक कहानियों और ग्रंथो पर बनाई जाती थी।
महिलाओ का फिल्म में काम करना वर्जित था और पुरुषों के लिए भी ये कुछ नया सा था लेकिन फिर भी कई मुश्किलों के बावज़ूद फिल्म बनकर तैयार हुई और जब राजा हरिश्चंद्र फिल्म को देखगें तो फिल्म की कहानी को समझने में ज्यादा मुश्किल भी नहीं होगी क्योंकि इसके सारे सीन बखूबी से लिखे गए है । उस समय की कहानियों में जहां राजा – महाराजा हुआ करते थे और शिकार खेलना उनका शौक होता था तो वहीं रानी – महारानियाँ महल में ही रहती थी।
उनके ऐशो – आराम के सारे साधन महल के अंदर ही हुआ करते थे। तब की फिल्मो और कहानियों में आपको देखने को मिलेगा कि राजा राज्य संभालने के साथ – साथ आम लोगो और प्रजा से संबधित फैसले भी लिया करते थे। ठीक वैसा ही आधार इस फिल्म का भी है जिसमे एक राजा , उनका परिवार और राज्य है , जिसके लिए दादा साहब ने राजा हरिश्चंद्र की कहानी को चुना। क्योंकि तब देश में अंग्रेजों का शासन था तो इस फिल्म का संकेत कहीं – न – कहीं सच्चाई और सत्याग्रह की ओर भी रहा।
इसके अलावा आम जनता जिन पौराणिक किस्से – कहानियों को अब तक सिर्फ सुनते आये थे अब वो उन्हें साक्षात स्क्रीन पर देख सकते थे जिससे उनका इंट्रस्ट तो बढ़ता ही था लेकिन साथ ही ये फिल्मे उन्हें हिन्दू संस्कृति एवं भगवान से जोड़े रखने का काम भी करती थी ।
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